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देखो उन मासूमो को
जो लड़ते हैं हुए कुछ टुकड़ो को,
नादान घबराई जवानी को
जो सिमटी है तार-तार कपड़ो में …
एक बूड़ा जो हर रोज मरता है,
सोचो, क्यों शाम होने से डरता है,
जेहन में एक ख़याल रह रह कर आता है,
ख्वाब क्यों अक्सर ख्वाब ही रह जाता है ?
देखो ये ठंडा चूल्हा
कुछ दिन से इसमें आग नहीं है,
मासूमो की नन्ही आँखे
उनमे भी अब कोई ख्वाब नहीं है!
एक दिल जो सिग्नल पर टूटता है
सोचो, क्यों जवान होने से डरता है,
जेहन में फिर वही ख़याल उभर आता है,
ख्वाब क्यों अक्सर ख्वाब ही रह जाता है ?
गालो पर सूखती लकीर
गोद में पिंजरों का बिलबिलाना
रोज कूड़े के ढेर से अपनी
एक रोज की ज़िन्दगी तलाशना!
एक जिस्म जो सुबह तक लुटता है
सोचो, क्यों रात होने से डरता है,
जेहन में अब भी … यही ख़याल आता है,
ख्वाब क्यों अक्सर ख्वाब ही रह जाता है ?
सुनी बस्ती, तन्हा घर
टूटे आइनों में कोई अक्स नहीं है,
बदहवास सी गलियां
मकानों के भीड़ में कोई घर नहीं है
एक अश्क जो पलकों पर छुपता है
सोचो, क्यों बाहर आने से डरता है,
जेहन में वह ख़याल, अब पुख्ता हुआ जाता है,
ख्वाब, हाँ ख्वाब अक्सर ख्वाब ही रह जाता है!
प्रकाश सिंह “परु”
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