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वो जो एक शायर था,
कुछ रोज हुए, देर रात उसे
शमशान के बाहर देखा था!
गुमसुम सा चला जाता था
खुद से भी अनजाना,
आँखों में सुलगते सवाल थे,
होंटो से कुछ बडबडाता था शायद !
वो शमशान के बाहर फिरता था
एक शमशान अपने भीतर लिए
कई चिताए जल रही थी दिल में
गुजर चुके तमाम लम्हों की
पर धुआं था की,
बाहर निकलता ही ना था
परत दर परत, फेफड़ों में
अपनी पकड़ मजबूत करता था!
उस नीम सब शमशान का सन्नाटा
उसे अपना ही वजूद नज़र आता था,
दूर दम तोडती रौशनी का हल्का सा धुधंलका
उसके साए को उससे चिपकाये था, और
वो उससे छूटने को छटपटाता था, बेचैन था
शायद, नहीं यकीनन, यही दर्द …
उसकी उदास आँखों मैं नज़र आता था!
कुछ दूर चलकर वो लडखड़ा गया
घुटनों पर सर रख कर वही पर पसर गया
फिर कंधो से उतार अपनी विरासत
फिर से उसी अतीत मैं उतर गया . . .
उसने अपने अंदाज़ मैं अपनी महफ़िल सजा ली
पहले कुछ शेर निकाले फिर सारी नज्मे,
कितने ही गजले और एक चाँद!
तमाम अधूरे ख्वाब, चंद मुस्कराहट
फिर एक पोटली यादो की और . . .
एक कागज़ का तुड़ा-मुड़ा टुकड़ा
शायद किसी के लम्स से महका हुआ!
——————
वो जो एक शायर था,
कुछ रोज हुए, देर रात
शमसान के बहार उसे अपने
जज्बातों से उलझते देखा था
उस रात, वो एक बहकी नज़्म
जो उससे बेहद खपा थी . . .
वो एक मासूम ग़ज़ल
जो अब फीकी हो गयी थी
और तमाम उम्दा शेर
जो अब फरेब मालूम होते थे
उससे हिसाब करते थे,
कई-कई सवाल करते थे!
क्यों उन्हें बंद दीवानों से आज़ाद किया
क्यों उन्हें किसी बेवफा के नाम किया
मुर्दा शब्दों की, जब लाश बेहतर थी
फिर क्यों, उन्हें रूह में पिरो दिया . . .
हर सवाल उसे,
टुकडे-टुकडे करता रहा
हर नयी सांस के साथ,
वो थोड़ा-थोड़ा मरता रहा!
नफस,
हलक तक आकर फंस जाती
खारापन,
पलकों पर रुक कर सूख जाता
साया अब तक उससे चिपका था
और चाँद तो कब का जा चूका था!
उसने देर तक सितारों से गिला किया
फिर मुनाजिर ख्वाब को देखा किया . . .
वो जो एक शायर था,
उस रात शमसान के बाहर . . .
वो थक कर,
अपनी ही बाँहों में बिखर गया!
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