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ऐसे ही एक मौसम में रंग फिजाओं में बरस आया था !

My poems, my thoughts, social issues ....
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मुद्दत हुइ तू मुझे याद आई नहीं
दिल में तू नहीं अब, ऐसा भी नहीं

इन फागुन के रंगों में तू खुशबु की तरह समायी है
यादों के हर वरक में तेरी ही तस्वीर नज़र आई है
मैं तो समझा था मुरझा गयी जज़्बात की हर कली
फिर क्यों “परु” इन पलकों पर बेवजह नमी छायी है

ऐसे ही एक मौसम में
रंग फिजाओं में बरस आया था
मैं अपने कुछ सपनो को
इस जहाँ से चुरा के लाया था
सहमी हुई खामोश सदायें
गीली आँखों में सजा के लाया था
आज फिर उसने सताया है, सोये जख्मो को जगाया है
मुद्दतों जिसे भुला ना सका, वो शक्श फिर याद आया है!

सिद्दत से कुछ अरमान बचा के रखे थे
हंसी वो पल, और थोड़े दर्द संभल के रखे थे
दिल कहता है आज तुम्हे हर बात लिखू दू
जख्मे-ज़िजर, कजायें-वफ़ा, सदायें-इश्क, आहें-जुबान
और क्या-क्या लिखू ?
दास्ताने जफा लिखू या की सूरते वफ़ा लिखू?
लिखने को तो यूँ बहुत था खूने जिगर, पर
ख्यालों में कहीं सादगी लिए वो सूरत नज़र आई है
सजा तो लू दर्द लबों पर ये मेरी मोहब्बत की रुसवाई है!

रंगों में नहाई सबा, तुम फिर इस चश्मेतर में उतर आई हो…

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