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कल शाम उसकी गली में
बेइरादा-बेवजह भटकता रहा
प्यार के आँगन से जब गुजरा
खुशियों से लदा, ज़िन्दगी का पेड़ देखा!
दिल ने मजबूर किया, और
मैं कुछ शाखें चुरा लाया!
मेरी खिड़की पर रखा कांच का गुलदान
दो शाख, कागज़ कि जिंदगी सजाये
तन्हा, बूड़ी शामों में खामोश निगाहों से
दूर गली के मोड़ को ताका करता!
आज, चुरायी खुशियों कि शाखें
मैंने उसकी बाँहों में डाल दी
मुरझा ना जाये कलियाँ, इसलिए
दो पैमाने उसमे शराब डाल दी!
यादें भीगी पलकों में मुस्कुराती रही,
सारी रात मेरी कायनात महकती रही!
जब प्यार को इस चोरी कि खबर हुई
मुदात्तो बाद मेरे दर पर दस्तक हुई,
खिड़की पर कुछ टूटने कि चीख सुनी
वो प्यार कुछ पल पहले मेरे रूबरू थी!
कई रोज पलकों में कांच चुभता रहा
बिखरे टुकड़े मुझसे समेटे ना गये!
शाम अब भी वही है, बूड़ी तन्हा
और वही, उदास नुक्कड़ का मोड़
बस कांच का वो गुलदान मेरी आँखों में
और खिड़की पर, कागज़ कि शाखे लिए मैं!
“काश” प्यार के आँगन से चुरायी खुशियाँ
मैंने अपने ही दामन में सजाई होती
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