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८ मार्च, समथिंग-समथिंग. . .

My poems, my thoughts, social issues ....
My poems, my thoughts, social issues ....
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८ मार्च यानि की महिला दिवस.
बहुत से ब्लॉग मैंने पड़े, कुछ कमेन्ट भी किये! इस विषय पर अब तक इस मंच में इतना कुछ लिखा जा चूका है की मेरे पास लिखने को कुछ भी खाश नहीं है.
हाँ इस महिला दिवस पर जो बात मुझे सबसे ज्यादा अच्छी लगी वो है सुप्रीम कोर्ट का फैसला, वो फैसला जिसमे उसने ३७ साल से बिस्तर पर पड़ी नर्स अरूणा रामचंद्र शानबाग को इच्छामृत्यु दिए जाने के लिए लेखिका पिंकी विरानी ने जो याचिका दायर की थी, उस पर न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ ने नर्स की ओर से दायर याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि हालाकि ‘एक्टिव यूथेंसिया’ [ऐसी इच्छामृत्यु जिसमें रोगी का जीवन कोई जहरीला इंजेक्शन इत्यादि देकर खत्म किया जाए] अवैध है, ‘फिर भी असाधारण परिस्थितियों में ‘पैसिव यूथेंसिया’ [ऐसी इच्छामृत्यु जब रोगी का इलाज बंद कर दिया जाए या उसे जीवनरक्षक उपकरणों से हटा लिया जाए] की इजाजत दी जा सकती है! अब शायद अरुणा को ३७ साल के इस लम्बे दर्द से छुटकारा मिल सके
!

अगर महिलाओ की ही बात करनी है तो फिर, मेरे घर से लेकर मेरे देश तक, आज सभी जगह सिर्फ महिला ही मुझे दिखती है!
घर चलाने वाली मेरी माँ, मेरे राज्य (उत्तराखंड) की राज्यपाल – सुश्री मार्ग्रेट अल्वा, मेरे देश की सबसे बड़ी विधानसभा (उत्तरप्रदेश) को चलाने वाली- सुश्री मायावती और परदे के पीछे से देश को चलाने वाली- सुश्री सोनिया जी. यहाँ तक की मेरे देश की प्रथम महिला- सुश्री प्रतिभा पाटिल जी! फिर कैसे कहू की नारी एक अबला है? उसे किसी पुरुष के कंधो की ज़रुरत है?
ये नाम मैंने इस लिए लिखे हैं क्योंकि आप सब इन्हें जानते हैं, इनके अलावा भी कई और नाम हैं जो इस लिस्ट में शामिल हो सकती है.
फिर बही मैं ये कहने को मजबूर हुआ हूँ और न जाने कब तक होता रहूँगा की, नारी अब भी वही है (कुछ प्रतिसत) छोड़ कर जहाँ वो पहले थी! आरक्षण प् कर वो कुछ एक जगहों पर तो अपना मुकाम हासिल कर चुकी है पर वहां भी वो, नारी (पुरुष की . . .) बन के रह गयी है! गावों की न्याय पंचायतों में रबर स्टेम्प बन के तो, multinational company मैं एक पैसे वाले बॉस की सेक्रेटरी बन के!
कुछ महिलाओं ने अपने इस दयनीय टैग को जरूर उतार फैका है! फिर भी मेरे देश में महिलाओ की स्तिथि चिंतनीय है! आंकड़ो के लिए आप संजीव शर्मा जी का बेहद संजीदा लेख “महिला दिवस नहीं राष्ट्रीय शर्म दिवस मनाइए!” पड़ सकते है! (आप सब को पड़ना चाहिए)

आपने कभी इस बारे में सोचा की हम कभी क्यों नहीं, कोई पुरुष दिवस मानते है ??? क्योंकि दिवस उनके लिए मनाये जाते है, जिन्हें या तो फिर संरक्षण की ज़रुरत (जैसे पृथ्वी दिवस, प्यार दिवस, पर्यावरण दिवस, एड्स डे, मदर डे, फादर डे आदि ) हो या फिर जो कुछ खाश हो (जैसे, अहिंसा दिवस, विश्व दिवस, आदि), और महिलाये शायद दोनों ही जगह अपना मुकाम रखती है, पर ज़रुरत है उन्हें पहले वाले से बाहर लाने की! और इसके लिए उन्हें खुद ही आगे आना होगा, अपने को बदलना होगा और बगैर किसी सपोर्ट के अपनी उपस्थिति पुरे देश में, हर कहीं दर्ज करनी पड़ेगी!

उन सभी महिलाओं से मुझे माफे चाहिए इसे पड़ कर जिनकी भावनाओ को ठेस पहुची है!

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