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हजारों ख्वाहिशें ऐसी… “Valentine Contest”

My poems, my thoughts, social issues ....
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“हजारों ख्वाहिशें ऐसी की हर ख्वाइश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान फिर भी कम निकले”

ख्वाहिश, अरमान, ख्वाब, जुस्तजू, ऐसे ही न जाने कितने खूबसूरत अलफ़ाज़ ताउम्र मेरी ज़िन्दगी से जुड़े रहे, मेरे इर्द-गिर्द घेरा बनाये बैठे रहे! कभी मुझे होले-होले गुदगुदाते रहे तो कभी आहिस्ता-आहिस्ता रुलाते रहे!

है!

जब भी कभी, मैं तनहाइयों से लड़ता, खुद से भागता, बदहवास सा, पीछे मुड कर देखता हूँ तो मीलों लम्बी ख़ामोशी नज़र आती है! आज भी कही कोई अरमानो का सिलसिला घसीटता-घसीटता मुझ तक पहुच ही जाता है, और अपने टूटे पैरों के घुटने पर बैठ वो मुझे चारों तरफ से घेर लेते है और मेरे अकेलेपन पर खूब हँसते है! और जब मैं उन्हें भगाने के लिए उन पर झपटता हूँ, तो मेरे कंधे से वो पोटली गिर पड़ती है, वो पोटली जिसके भारीपन के नीचे मेरा वजूद ही दब गया है, वही पोटली जो इस अन्नंत सफ़र में मेरी अकेली हमसफ़र है, एक पोटली, यादों की पोटली!
में घबरा कर उन मुह चिड़ाते अरमानो को छोड़, उस पोटली से गिरती यादों को समेटने लगता हूँ! कुछ यादें दूर तक लुडक जाती है, इतनी दूर की वापस सभी यादों को समेटते-समेटते शाम घिर जाती है, और फिर वो रात जिससे मैं कभी न डरा, एक बार फिर मुझे निगल जाने की नाकाम कोशिश करती है! मुझे आज तक पता नहीं चला की क्यों अँधेरे की सह पा कर तमाम बेजुबान लफ्ज़ (ख्वाइशें, अरमान, ख्वाब, जुस्तजू और भी न जाने क्या-क्या) अचानक से जी उठते है, और मुझे नोचने लगते हैं, काटने लगते है, मेरे ही चेहरे को मुझसे छीनने लगते है! और में बेबस दूर सितारों को पुकारने लगता, आशा भरी नज़रों से चाँद को देखा करता, मगर बेरहम सितारे खामोश मेरे हाल पे मुस्कुराते रहते, और चाँद जैसे अचानक से बीते ज़माने का आइना बन जाता! मैं देर तक उन लफ़्ज़ों से लड़ता रहता, तनहा, अकेला, बगैर अपने साए के, और जब लड़ते-लड़ते थक जाता तो घबरा कर आँखे बंद कर अपने अंजाम का इंतज़ार करने लगता ……

तभी चुपके से तुम मेरे करीब आती हो, और मेरे कांपते बदन को प्यार से अपनी आगोश में समेट लेती हो! मेरे बदहवास आँखों को चूम कर वही गीत गुनगुनाती हो जो मुझे आज भी बहुत पसंद है … “आजा पिया तोहे प्यार दू, गोरी बैयाँ तोपे वार दू, किसलिए तू इतना उदास, सूखे-सूखे होंट अखियों में प्यास … किस लिए…” ! और मैं तुम्हारी साँसों की डोर थामे तुम्हारे साथ-साथ दूर पहाड़ों की चोटियों तक चला जाता हूँ, सभी लफ्ज़ नीचे घाटियों में ही कही गम हो जाते हैं, मैं निढाल तुम्हारी गोद में सर छुपा लेता हूँ और तुम मेरे माथे पर अपने गर्म साँसों की महक छोडती रही और मैं खामोश एकटक तारों को गिनता रहा एक, दो, तीन, चार, पांच …….

मालूम नहीं गिनती कहाँ जा कर रूकती है? जब मेरी आँख खुली तो दूर-दूर तक पूरी घाटियों में, ऊँची-ऊँची चोटियों में, हर तरफ गुनगुनी धूप मुस्कुरा रही थी और रात मुझे डराते लफ़्ज़ों का कहीं कोई नामों-निशाँ नहीं था, पीछे मुड के देखा तो मेरा साया भी मेरे ही साथ था! मगर आँखों में कुछ चुभ रहा था, जैसे पलकों पर कोई कांच जैसे चीज़ टूट कर पारा-पारा हो गयी हो!

अचानक मुझे तुम्हारा ख्याल आया, और मेरे निगाहें जहाँ तक जा सकती थी तुम्हारी तलाश में वहां तक गयी, मगर पहाड़ों और पत्थरों से टकराकर मायूस लौट आई! तुम नहीं थी, कही नहीं! मेरे पास थी तो सिर्फ मेरी वो पोटली, जो हर शाम अँधेरा घिरते ही खुद-ब-खुद बिखर जाती है, मुझे नोचती है, निगल जाना चाहती है! और इस बार पहले से थोड़ी और भारी है!

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