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हिज्र की तमाम स्याह रातें . . .

My poems, my thoughts, social issues ....
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हिज्र की तमाम स्याह रातें
खामोश तनहाइयों में सिसकती है
उस एक टूटे लम्हे की यादें
अब भी ख्वाबों में आकर डसती हैं!

दरवाजे पर बिखरी बूड़ी शामें
बेसबब मुरझाये फूलों को तकती हैं
कोने में सिसकती पुरानी डायरी
कुछ सुलगते लम्हे याद दिलाती है!

कुछ गीली-खारी लकीरें अब भी
वक़्त-बेवक्त तकिये पर मिलती है
और-
दीवार पर लटकी एक तस्वीर
कमबख्त,
ना जीने देती है और ना मरने देती है!

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