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देखो उन मासूमों को, जो लड़ते है कुछ टुकड़ो को
नादान घबराई जवानी को, जो सिमटी है फटे कपड़ों में!
एक बूडा जो हर रोज मरता है,
सोचो वो क्यों शाम होने से डरता है?
ज़ेहन में एक सवाल उभर कर आता है
ख्वाब क्यों अक्सर ख्वाब ही रह जाता है?
देखो ये ठंडा चूल्हा,
कुछ दिन से इसमें आग नहीं है!
मासूमों की वो नन्ही आँखें,
अब इनमे भी कोई ख्वाब नहीं है!
सूनी बस्ती, तन्हा घर,
शायद दफ्न आज ज़ज्बात हुए है!
इंसानों के इस जंगल में ,
क्यों कोई किसी के साथ नहीं है?
अब तो साया भी पल-पल हमें आजमाता है,
ख्वाब, हाँ ख्वाब अक्सर ख्वाब ही रह जाता है!
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