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टूटते हुए घरों को बनते हुए मकानों को देखा है,
मैंने, गावों को शहर बनते हुए देखा है!
भाभी के आँचल में, दादा-दादी की मीठी बातों में
फागुन की बहारों में, दीवाली की रोशन रातों में
रिश्तों के साए में, जवान होते प्यार को देखा है
मैंने, अपने आगन में हंसती हुई शामों को देखा है!
आज लब पर, मासूम मुस्कुराहटों को जगह नहीं
सूख गयी आँखें, शायद मरासिमों को खबर नहीं
भीड़ में तनहा, खुशियों को सिसकते हुए देखा है
मैंने, पत्थरों की दीवारों में इंसान को खोते हुए देखा है!
खुदगर्जी का सांप, डस गया कोमल भावनाओं को
नया सबक पड़ लिया, धर्म के अय्यार आकाओं ने
रोज भयानक ख्वाबों को, हकीकत होते देखा है
मैंने, उदास ईद का चाँद मायूस होली का रंग देखा है!
सकून की खातिर, अपने ही भाइयों से लड़ते रहे
अयोध्या से गोधरा तक, अपना ही घर जलाते रहे
अल्लाह और भगवान को, अलग होते हुए देखा है
मैंने, मंदिर-ओ-मस्जिद को शाम के बाद रोते हुए देखा है!
टूटते हुए घरों को बनते हुए मकानों को देखा है!
मैंने, खुद को अपने ही घर में मुज़ाहिर होते हुए देखा है!
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