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क्यों न नफरत करूँ तुमसे?
बेसहारा थे मेरे मासूम ख्वाब
तन्हा सबो-शहर भटकते थे
बेवजह अपने वजूद से लड़ते
और टूट-टूट कर बिखरते थे
फिर चुपके से आकर तुमने
इनको पलकों पर रख लिया
आदत थी जिन्हें तीरगी की
उन आवारों को घर दे दिया
और उस पे सितम ये की –
दस्ते-वफ़ा का भरम दे दिया
क्यों न नफरत करूँ तुमसे?
ग़मों की धुप, सहरा सी ज़िन्दगी
तन्हा कर गए सब मरासिम मुझे
चंद यादें है अब खंडहर जैसे
और कांपते एहसास डराते मुझे
फिर चुपके से आकर तुमने
अपने आँचल का साया कर दिया
मेरे सानो पर बिखरा कर जुल्फें
सीले ज़ज्बातों को सुलगा दिया
और उस पर सितम ये की –
तुमने भी खिलौना समझ लिया
क्यों न नफरत करूँ तुमसे?
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